अभिवृद्धि और विकास में अंतर | Growth and Development

अभिवृद्धि ( वृद्धि) और  विकास में अंतर Abhivridhi or vikas me antar को इस पोस्ट में विस्तार से समझाया गया है | दोस्तों यह टॉपिक बालविकास (Child Development) का एक महत्वपूर्ण टॉपिक है | जो विभिन्न प्रकार की शिक्षक भर्ती परीक्षाओं जैसे REET, KVS, CTET, UPTET, Rajasthan 2nd Grade, RPSC 1st Grade आदि में पूछा जाता है  |
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Abhivridhi or vikas me antar
अभिवृद्धि और विकास में अंतर

 

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Abhivridhi or vikas me antar

अभिवृद्धि और विकास में अंतर 

 
अभिवृद्धि (Growth) विकास (Development)
अभिवृद्धि का स्वरूप बाह्य होता है। विकास आंतरिक होता है।
अभिवृद्धि कुछ समय के बाद रुक जाती है। विकास जीवन-पर्यन्त चलता रहता है।
अभिवृद्धि का प्रयोग संकुचित अर्थ में होता है। विकास शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में होता है।
अभिवृद्धि में कोई निश्चित क्रम नहीं होती है। विकास में एक निश्चित क्रम होता है।
अभिवृद्धि की कोई निश्चित दिशा नहीं होती है। विकास की एक निश्चित दिशा होती है।
अभिवृद्धि का कोई लक्ष्य नहीं होता है। विकास का कोई न कोई लक्ष्य होता है।
अभिवृद्धि को सीधे मापा जा सकता है। विकास का सीधा मापन सम्भव नहीं है।
अभिवृद्धि के परिवर्तन रचनात्मक परिवर्तन कहलाते हैं। विकास के पिरवर्तन रचनात्मक व विनाशात्मक परिवर्तन कहलाते हैं।
अभिवृद्धि के परिवर्तन विवृद्धि सूचक होते है। विकास के परिवर्तन विवृद्धि व ह्रास सूचक होते हैं।
अभिवृद्धि का संबंध केवल आकार बढ़ने से है। विकास का संबंध सभी परिवर्तनों से है।
 

अभिवृद्धि और विकास का अर्थ व परिभाषाएं 

अभिवृद्धि और विकास दोनों शब्द प्रायः एकही अर्थ में प्रयोग किये जाते है किन्तु मनोवैज्ञानिकों के अनुसार इनमें कुछ अन्तर होता है
सोरेन्सन (Sorensons) के विचारों में,
“अभिवृद्धि शब्द का प्रयोग, सामान्यतः, शरीर और उसके अङ्गो के भार तथा आकार में वृद्धि के  लिए किया जाता है। इस वृद्धि को नापा और तौला जा सकता है
विकास का सम्बन्ध अभिवृद्धि से अवश्य होता है, पर यह शरीर के अङ्गों में होने वाले परिवर्तनों को विशेष रूप से व्यक्त करता है उदाहरणार्थ, बालक की हड्डियाँ आकार में बढ़ती हैं, यह भी बालक की अभिवृद्धि है: किन्तु हड्डियाँ कड़ी हो जाने के कारण उनके स्वरूप में जो परिवर्तन आ जाता है, यह विकास को दर्शाता है। इस प्रकार विकास में अभिवृद्धि का भाव निहित रहता है।
 
हरलॉक के विचारों में- “ विकास, अभिवृद्धि तक ही सीमित नहीं है। इसके बजाय, इसमें परिपक्वावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम निहित रहता है। विकास के परिणामस्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताएँ और नवीन योग्यताएँ प्रकट होती है।
 
गेसेल के अनुसार-विकास, प्रत्यय से अधिक है। इसे देखा, जाँचा और किसी सीमा तक तीन प्रमुख दिशाओं- शरीर अंग विश्लेषण, शरीर ज्ञान तथा व्यवहारात्मक में मापा जा सकता है इन सब में, व्यावहारिक संकेत ही सबसे अधिक विकासात्मक स्तर और विकासात्मक शक्तियों को व्यक्त करने का माध्यम है। ” अतः मनोवैज्ञानिक अर्थो में विकास केवल शारीरिक आकार और अंगो में परिवर्तन होना ही नहीं है, यह नई-नई विशेषताओं और क्षमताओं का विकसित होना है जो गर्भावस्था से आरम्भ होकर वृद्धावस्था तक चलता रहता है।
 

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