विकास के सिद्धांत | Principles of Development

 बहुत से विद्यार्थी Vikas Ke Sidhant विकास के नियम अथवा सिद्धांत के बारे में सर्च करते है | परन्तु उन्हें परिणाम English में मिलते है | परन्तु वे हिंदी में in Hindi पढना चाहते है | इस आर्टिकल में मैंने आपको विकास के नियम क्या है? अथवा विकास के सिद्धांत कौन-कौनसे है? के बारे में विस्तार से बताया है | सभी नियमो को बिन्दुवार विस्तार से वर्णित किया है | जिसे पढ़कर आप अनेक शिक्षक भर्ती परीक्षाओं जैसे REET, CTET, KVS, DSSSB, HTET, UPTET, आदि में अच्छे अंक प्राप्त करे सकते है |

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विकास के प्रमुख सिद्धांत
 

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विकास के सिद्धांत

विकास से प्रमुख सिद्धांत निम्न प्रकार से है |

निरन्तरता का नियम  

यह नियम बताता है कि विकास एक न रुकने वाली प्रक्रिया है। माँ के गर्भ से ही यह प्रारम्भ हो जाती है तथा मृत्यु पर्यन्त निरन्तर चलती ही | रहती है। एक छोटे से नगण्य आकार से अपना जीवन प्रारम्भ करके हम सबके व्यक्तित्व के सभी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक आदि का सम्पूर्ण विकास इसी निरन्तरता के कारण भली-भाँति सम्पन्न होता रहता है।

वृद्धि और विकास की गति की दर एक सी.नहीं रहती 

यद्यपि विकास बराबर होता रहता है, परन्तु इसकी गति सब अवस्थाओं में एक जैसी नहीं रहती। शैशवावस्था के शुरू के वर्षों में यह गति कुछ तीव्र होती है, परन्तु बाद के वर्षों में यह मन्द पड़ जाती है।
पुनः किशोरावस्था के प्रारम्भ में इस गति में तेजी से वृद्धि होती है परन्तु यह अधिक समय तक नहीं बनी रहती। 
इस प्रकार वृद्धि और विकास की गति में उतार-चढ़ाव आते ही रहते है। किसी भी अवस्था में यह एक जैसी नहीं रह पाती। 

वैयक्तिक अन्तर का नियम 

इस नियम के अनुसार बालकों का विकास और वृद्धि उनकी अपनी वैयक्तिकता के अनुरूप होती है। वे अपनी स्वाभाविक गति से ही वृद्धि और विकास के विभिन्न क्षेत्रों में आगे बढ़ते रहते हैं और इसी कारण उनमें पर्याप्त विभिन्नताएँ देखने को मिलती हैं। कोई भी एक बालक वृद्धि और विकास की दृष्टि से किसी अन्य बालक के समरूप नहीं होता।

विकास क्रम की एकरूपता 

विकास की गति एक जैसी न होने तथा पर्याप्त वैयक्तिक अन्तर पाए जाने पर भी विकास क्रम में कुछ एकरूपता के दर्शन होते हैं। इस क्रम में एक ही जाति विशेष के सभी सदस्यों में कुछ एक जैसी विशेषताएँ देखने को मिलती हैं। उदाहरण के लिए मनुष्य जाति के सभी बालकों की वृद्धि सिर की ओर से प्रारम्भ होती है। इसी तरह बालकों के गत्यात्मकऔर भाषा विकास में भी एक निश्चित प्रतिमान (Pattern) और क्रम के दर्शन किए जा सकते है।

सामान्य से विशिष्ट क्रियाओं का नियम

विकास और वृद्धि की सभी दिशाओं में विशिष्ट क्रियाओं से पहले उनके सामान्य रूप के दर्शन होते है। उदाहरण के लिए अपने हाथों से कुछ चीज पकड़ने से पहले बालक इधर उधर यूँ ही हाथ मारने या फैलाने की चेष्टा करता है।

एकीकरण का नियम 

विकास की प्रक्रिया एकीकरण के नियम का पालन करती है। इसके अनुसार बालक अपने सम्पूर्ण अंग को और फिर अंग के भागों को चलाना सीखता है। इसके बाद वह उन भागों में एकीकरण करना सीखता है। सामान्य से विशेष की ओर बदलते हुए विशेष प्रतिक्रियाओं तथा चेष्टाओं को इकठे रूप में प्रयोग में लाना सीखता है। को उदाहरण, फिर के उंगलियों लिए एक को बालक और फिर पहले, हाथ पूरे हाथ एवं उंगलियों को एक साथ चलाना सीखता है।

परस्पर संबंध का नियम 

विकास की सभी दशाएँ-शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक आदि- एक-दूसरे से परस्पर संबंधित हैं। इनमें से किसी भी एक दिशा में होने वाला विकास अन्य सभी दिशाओं में होने वाले विकास को पूरी तरह प्रभावित करने की क्षमता रखता है।

विकास की भविष्यवाणी की जा सकती है 

एक बालक की अपनी वृद्धि और विकास की गति को ध्यान में रख कर उसके आगे बढ़ने की दिशा और स्वरूप के बारे में भविष्यवाणी जा सकती है। उदाहरण के लिए एक बालक की कलाई की हड्डियों का एक्स किरणों से लिया जाने वाला चित्र यह बता सकता है कि उसका आकार प्रकार आगे जा कर किस प्रकार का होगा। इसी तरह बालक की इस समय की मानसिक योग्यताओं के ज्ञान के सहारे उस के आगे के मानसिक विकास. के बारे में पूर्वानुमान लगाया जा सकता है।

विकास की दिशा का नियम

इस नियम के अनुसार विकास की प्रक्रिया पूर्व निश्चित दिशामें आगे बढ़ती है। कुप्पूस्वामी ने इसकी व्याख्या करते हुए लिखा है कि विकास Cephalocaudal और Proximo-distal क्रम में होता है। 
(Cephalo-caudal) क्रम का विकास लम्बवत रूप में (Longitudinal direction) सिर से पैर की ओर होता है। सबसे पहले बालक अपने सिर और भुजाओं की गति पर नियंत्रण करना सीखता है और उसके बाद फिर टाँगों को। इसके बाद ही वह अच्छी तरह बिना सहारे खड़ा होना और चलना सीखता है। 
(Proximo-distal) क्रम के अनुसार विकास का क्रम केन्द्र से पारम्भ होता है, फिर बाहरी विकास होता है और इसके बाद सम्पूर्ण. विकास। उदाहरण के लिए, पहले रीड़ क हड्डी का विकास होता है और उसके बाद भुजाओं, हाथ तथा हाथ की उँगलियों का तथा तत्पश्चात् इन सबका पूर्ण रूप से संयुक्त विकास होता है।  

विकास लम्बवत् सीधा न हो कर वर्तुलाकार होता है  

बालक का विकास लम्बवत् सीधा (Linear) न हो कर वर्तुलाकार (Spiral) होता है।

विकास में परिवर्तन होता है 

मानव शिशुओं के विकास का पहला नियम यह है कि इसमें गुणात्मक परिवर्तन (qualitative changes). तथा परिमाणात्मक परिवर्तन (qualitative changes) दोनों होते है। जैसे-जैसे शिशुओं की उम्र बढ़ती जाती है उनके सीखने की क्षमता में परिवर्तन, सांवेगिक नियंत्रण में परिवर्तन, किसी विशेष भाषा को सीखने की क्षमता में परिवर्तन आदि होते है और ये सभी गुणात्मक परिवर्तन के उदाहरण है। गुणात्मक परिवर्तनों के अलावा बालकों में परिमाणातमक परिवर्तन, जैसे शरीर की बनावट में परिवर्तन, आकार में परिवर्तन, शरीर के भीतरी अंगो में परिवर्तन आदि भी होता है।

प्रारंभिक विकास परवर्ती विकास से अधिक महत्त्वपूर्ण होता है

मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से यह स्पष्ट हो गया है कि बालको के प्रारंभिक विकास (early development) तुलनात्मक रूप से बाद के सालों में हुए विकास या परवर्ती विकास की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण होता है

विकास परिपक्वता तथा सीखने की उपज है

जन्म के बाद बालको के सम्पूर्ण विकास में परिपक्वता तथा प्रशिक्षण दोनों की भूमिका प्रधान हो जाती है। सच्चाई यह है कि बालक में विकास सही अर्थ में परिपक्वता तथा प्रशिक्षण दोनों की अंत क्रिया पर निर्भर करता है।

विकास की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में सुख शांति एक समान नहीं होती है 

अध्ययनों ये यह पता चला है कि बचपनावस्था जो करीब जन्म के 2 सप्ताह से 2 साल तक की होती है, सबसे अधिक सुख-शांति का समय होता है। बाल्यवस्था की अवधि जो 6 साल से प्रारंभ होकर 12 साल तक की होती है, बालक तुलनात्मक रूप से अधिक खुश नजर आते है। प्रौढ़ावस्था का काल सबसे अशांत तथा अप्रिय होता है, क्योंकि इसमें तरह-तरह की नई-नई जवाबदेही व्यक्ति के कंधो पर आ जाती है। vikas ke sidhant

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